Sunday, October 7, 2012
Thursday, October 4, 2012
बलविंदर ड्राइवर
Friday, April 6, 2012
सुगन्धित मूर्ख हैं आप..पांच साल बाद एक पुरानी पोस्ट
यह पोस्ट पांच साल पहले निर्मल आनंद पर यहां छपी थी.
मैं बाबा नागार्जुन से कभी नहीं मिला पर अनामदास मिले हैं.. मंत्र कविता की प्रतिक्रिया में उन्होने लिखा.. "बाबा के दर्शन दो बार करने का सौभाग्य मिला. औघड़ थे.. बाबा का हँसता चेहरा देखकर मन प्रसन्न हुआ, लोग तो भूल गए थे कि रामदेव, आसाराम और श्रीश्री रविशंकर से पहले एक और बाबा थे.." चन्दू भाई भी मिले थे..
मगर इसी कविता पर वरिष्ठ मित्र चन्द्रभूषण की प्रतिक्रिया आई वो बाबा की जयजयकारी छवि को थोड़ा ठेस पहुँचा रही थी.. "बाबा से पहली मुलाक़ात पटना में हुई थी । मुझे जनमत के लिये उनका इन्टरव्यू करना था । प्रेमचन्द रंगशाला के पास किसी धरने में शामिल होने आये थे । भीड़ छटने पर नमस्ते करके मैंने कहा,"बाबा आप से बात करनी थी"। छूटते ही बोले,"अब बात करने के लिये भी बात करनी पड़ेगी क्या? इस त्वरित जवाब से मैं इतना डरा कि टाइम लेकर भी बात करने नहीं गया । मेरे साथी इरफ़ान गये और झेलकर लौटे। बात के क्रम में बाबा ने उनसे कहा- "मूर्ख हैं आप, सुगन्धित मूर्ख..दो पैसे का चेहरा है आपका। सुन्दर को एक दिन सुन्दरी मिल जायेगी, फिर किनारे हो जायेंगे"..
पर बाबा कोई अवतार पुरुष, कोई मूर्ति तो थे नहीं.. थे तो एक समूचे मनुष्य.. तो इसी मनुष्य को और बेहतर जानने के लिये मैंने अपने पुराने मित्र इरफ़ान से सम्पर्क साधा तो उन्होने यह संस्मरण लिख मारा.. जिसमें बाबा ने उन्हे इस अनुपम उपाधि से नवाज़ा.. आप खुद ही पढ़ें इसे और आनन्द लें.. पर ये भी ध्यान रखें कि इरफ़ान मियां बाबा के हाथों सुगन्धित मूर्ख की उपाधि पाकर भी आहत नहीं है.. क्योंकि उनके व्यक्तित्व में कुछ तो था ऐसा कि बाबा को भी उसकी सुगन्ध को स्वीकारना पड़ा.. और इरफ़ान से मिलने वाला हर व्यक्ति इस सत्य को जानता है और मानता है..
बात १९९० की होगी शायद. चंदू भाई जिस वाक़ये की याद कर रहे हैं वो लम्बे समय तक हम लोगों के लिए चर्चा का विषय रहा. हम जिनको बड़ा कवि/शायर मानते हैं उनसे बड़ा आदमी होने की भी उम्मीद करते हैं. नागार्जुन ने इस घटना में जैसा व्यवहार किया उस से तब हमें उनके उसी बेलौस व्यवहार की झलक /पुष्टि मिली थी जिस पर हम जान छिड़कते हैं. अब यहाँ रुकिए, लगता है मैं जो कहने चला था उस से भटक रहा हूँ . अच्छा यही रहेगा कि मैं स्मृतियों की खंगाल करता हुआ आपको "उस" अनुभव का साझीदार बनाऊँ. अस्तु, मुद्दे की बात.
इरफ़ान के शब्द:-
हम जनमत के लिए एक लम्बा इन्टरव्यू करने नागार्जुन के पास गए थे. वो अपने बेटे के साथ कंकरबाग,पटना के घर पर मिले . हम तीन मूर्तियाँ, संजय कुंदन, संजीव और मैं, पलंग के एक तरफ इस तरह बैठी थीं कि आज कुछ यादगार इन्टरव्यू सम्पन्न कर लेना है. सवाल अभी शुरू भी नहीं हुये थे कि बाबा ने बोलना शुरू किया. वो कोई चालीस मिनट तक वीपी सिंह की सरकार के बारे में बोलते रहे, जिसका निचोड़ ये था कि वीपी सरकार अभी बच्ची है इसे देखो, जल्दबाजी में इस सरकार के बारे में राय मत बनाओ और विरोध मत करो. हम इस उधेड़ बुन में कि उस इन्टरव्यू को कैसे संभव बनाया जाये जिसमें एक कवि का निजी जीवन, उसका रचनात्मक संघर्ष, उसकी सौन्दर्यबोधात्मक दुनिया, सुख दुःख, सपने सब आ जाएँ. अब तक जो बातें कही गयीं उनसे एक राजनीतिक पर्यवेक्षक की छवि बनती थी. तो जैसे ही हमें पंक्चुएशन में एंट्री की जगह मिली सबने एक दूसरे को देखा और मैंने सवाल पूछा. अब सवाल मैंने ही क्यों पूछा होगा इस पर अभय भाई कहेंगे 'तेरे को सस्ती लोकप्रियता जो चाहिये होती है'. बहरहाल.
इरफान: बाबा लेकिन अ अ आप तो कविता के आदमी हैं...(सवाल अधूरा और बाबा उवाच)बाबा: कविता के आदमी राजनीति के आदमी! आदमी को इतना बांटकर देखते हो?(स्वर में क्रोध)इरफान: लेकिन बाबा.....आप तो जे पी मूवमेंट में भी...(सवाल अधूरा और बाबा उवाच)बाबा: मूर्ख है ये...सुगन्धित मूर्ख. कविता के आदमी ..राजनीति के आदमी..अरे जे पी क्या.. मैं कहाँ कहाँ रहा. मैं बौद्ध भी रहा, जेल में भी रहा..तुम जानते क्या हो?...अरे मालूम है जीवन है इसमें क्या क्या उतार चढ़ाव आते हैं मालूम भी है कुछ? चले आये हैं मूँछ मुड़ाकर.. तुम्हारा चेहरा भी है दो पैसे का.. आज तुम यहाँ हो और जनमत में हो कल तुम बम्बई चले जाओगे.. हीरो-वीरो बन जाओगे.. फिर मैं आऊँगा, पूछूँगा, वो इरफान कहॉ गया?.. तो पता चलेगा वो बम्बई चला गया.. वैसे मैं दिल्ली जाकर विपिन से पूछूँगा तुम्हारे बारे में..
(सूचना:सादतपुर में पार्टी का ऑफिस था और बाबा रोज़ सुबह टहलते हुए चाय पर विपिन भाई के साथ होते अख़बार पढ़ते, हंसी ठट्ठा करते ,दुनिया जहान की चिंताएं शेयर करते. पार्टी ऑफिस उनके सादतपुर के कई घरों जैसा घर था)
इस पूरे संवाद क्रम में बाबा का स्वर उंचा और थकता जा रहा था.उन्होंने खिड़की की तरफ मुँह कर लिया, इससे पहले वे अपने बेटे को निर्देश दे चुके थे कि इन लोगों को हटा दिया जाये. हम ढीठ थे, भक्त थे या कर्मयोगी अब ठीक से तय नहीं कर पा रहा लेकिन एक दूसरे को देखते कुछ ज्वार के थमने की उम्मीद लिए बैठे रहे. खिड़की की तरफ मुँह किये अब वो धीरे धीरे किसी अनदेखी दुनिया से मुखातिब थे और उधर से आ रही टुकड़ा भर धूप या मुट्ठी भर हवा से बातें करते रहे. हमें किसी ने हटाया नहीं. यह एक कवि का घर था और सब परिजन कवि के स्वभाव से परिचित थे. इसमे १०-१५ मिनट गुज़रे. करीब था कि बाबा सो गए हों. किसी भीतरी स्वरयंत्र से आ रही या खींच कर लाई जा रही आवाज़ से यही एहसास होता था कि वो किसी अन्य दुनिया से संवाद में व्यस्त हैं. कब वो वापस इस दुनिया में आये नहीं मालूम लेकिन हमने सूना.. अरे भाई सुकांत! पानी वानी पिलाओ इन लोगों को.यह सुन कर हम एक ओर आश्वस्त हुए कि हम बेआबरू होकर नहीं निकलेंगे दूसरी ओर 'इन्टरव्यू जो हो ना सका' की एक पंक्ति हमारी असफलता की कहानी कह रही थी. अब मुझे उनकी मृत्यु का वर्ष याद नहीं लेकिन तब से थोड़े दिनों पहले उनके पैतृक गाँव में उनकी बीमारी का सुनकर जब कॉमरेड विनोद मिश्र और साथी मिलने पहुंचे तो मुझे मालूम हुआ कि वो दूसरी बातों के अलावा ये भी पूछने लगे, "इरफान का क्या हाल हैं ?"
मैं बाबा नागार्जुन से कभी नहीं मिला पर अनामदास मिले हैं.. मंत्र कविता की प्रतिक्रिया में उन्होने लिखा.. "बाबा के दर्शन दो बार करने का सौभाग्य मिला. औघड़ थे.. बाबा का हँसता चेहरा देखकर मन प्रसन्न हुआ, लोग तो भूल गए थे कि रामदेव, आसाराम और श्रीश्री रविशंकर से पहले एक और बाबा थे.." चन्दू भाई भी मिले थे..
मगर इसी कविता पर वरिष्ठ मित्र चन्द्रभूषण की प्रतिक्रिया आई वो बाबा की जयजयकारी छवि को थोड़ा ठेस पहुँचा रही थी.. "बाबा से पहली मुलाक़ात पटना में हुई थी । मुझे जनमत के लिये उनका इन्टरव्यू करना था । प्रेमचन्द रंगशाला के पास किसी धरने में शामिल होने आये थे । भीड़ छटने पर नमस्ते करके मैंने कहा,"बाबा आप से बात करनी थी"। छूटते ही बोले,"अब बात करने के लिये भी बात करनी पड़ेगी क्या? इस त्वरित जवाब से मैं इतना डरा कि टाइम लेकर भी बात करने नहीं गया । मेरे साथी इरफ़ान गये और झेलकर लौटे। बात के क्रम में बाबा ने उनसे कहा- "मूर्ख हैं आप, सुगन्धित मूर्ख..दो पैसे का चेहरा है आपका। सुन्दर को एक दिन सुन्दरी मिल जायेगी, फिर किनारे हो जायेंगे"..
पर बाबा कोई अवतार पुरुष, कोई मूर्ति तो थे नहीं.. थे तो एक समूचे मनुष्य.. तो इसी मनुष्य को और बेहतर जानने के लिये मैंने अपने पुराने मित्र इरफ़ान से सम्पर्क साधा तो उन्होने यह संस्मरण लिख मारा.. जिसमें बाबा ने उन्हे इस अनुपम उपाधि से नवाज़ा.. आप खुद ही पढ़ें इसे और आनन्द लें.. पर ये भी ध्यान रखें कि इरफ़ान मियां बाबा के हाथों सुगन्धित मूर्ख की उपाधि पाकर भी आहत नहीं है.. क्योंकि उनके व्यक्तित्व में कुछ तो था ऐसा कि बाबा को भी उसकी सुगन्ध को स्वीकारना पड़ा.. और इरफ़ान से मिलने वाला हर व्यक्ति इस सत्य को जानता है और मानता है..
बात १९९० की होगी शायद. चंदू भाई जिस वाक़ये की याद कर रहे हैं वो लम्बे समय तक हम लोगों के लिए चर्चा का विषय रहा. हम जिनको बड़ा कवि/शायर मानते हैं उनसे बड़ा आदमी होने की भी उम्मीद करते हैं. नागार्जुन ने इस घटना में जैसा व्यवहार किया उस से तब हमें उनके उसी बेलौस व्यवहार की झलक /पुष्टि मिली थी जिस पर हम जान छिड़कते हैं. अब यहाँ रुकिए, लगता है मैं जो कहने चला था उस से भटक रहा हूँ . अच्छा यही रहेगा कि मैं स्मृतियों की खंगाल करता हुआ आपको "उस" अनुभव का साझीदार बनाऊँ. अस्तु, मुद्दे की बात.
इरफ़ान के शब्द:-
हम जनमत के लिए एक लम्बा इन्टरव्यू करने नागार्जुन के पास गए थे. वो अपने बेटे के साथ कंकरबाग,पटना के घर पर मिले . हम तीन मूर्तियाँ, संजय कुंदन, संजीव और मैं, पलंग के एक तरफ इस तरह बैठी थीं कि आज कुछ यादगार इन्टरव्यू सम्पन्न कर लेना है. सवाल अभी शुरू भी नहीं हुये थे कि बाबा ने बोलना शुरू किया. वो कोई चालीस मिनट तक वीपी सिंह की सरकार के बारे में बोलते रहे, जिसका निचोड़ ये था कि वीपी सरकार अभी बच्ची है इसे देखो, जल्दबाजी में इस सरकार के बारे में राय मत बनाओ और विरोध मत करो. हम इस उधेड़ बुन में कि उस इन्टरव्यू को कैसे संभव बनाया जाये जिसमें एक कवि का निजी जीवन, उसका रचनात्मक संघर्ष, उसकी सौन्दर्यबोधात्मक दुनिया, सुख दुःख, सपने सब आ जाएँ. अब तक जो बातें कही गयीं उनसे एक राजनीतिक पर्यवेक्षक की छवि बनती थी. तो जैसे ही हमें पंक्चुएशन में एंट्री की जगह मिली सबने एक दूसरे को देखा और मैंने सवाल पूछा. अब सवाल मैंने ही क्यों पूछा होगा इस पर अभय भाई कहेंगे 'तेरे को सस्ती लोकप्रियता जो चाहिये होती है'. बहरहाल.
इरफान: बाबा लेकिन अ अ आप तो कविता के आदमी हैं...(सवाल अधूरा और बाबा उवाच)बाबा: कविता के आदमी राजनीति के आदमी! आदमी को इतना बांटकर देखते हो?(स्वर में क्रोध)इरफान: लेकिन बाबा.....आप तो जे पी मूवमेंट में भी...(सवाल अधूरा और बाबा उवाच)बाबा: मूर्ख है ये...सुगन्धित मूर्ख. कविता के आदमी ..राजनीति के आदमी..अरे जे पी क्या.. मैं कहाँ कहाँ रहा. मैं बौद्ध भी रहा, जेल में भी रहा..तुम जानते क्या हो?...अरे मालूम है जीवन है इसमें क्या क्या उतार चढ़ाव आते हैं मालूम भी है कुछ? चले आये हैं मूँछ मुड़ाकर.. तुम्हारा चेहरा भी है दो पैसे का.. आज तुम यहाँ हो और जनमत में हो कल तुम बम्बई चले जाओगे.. हीरो-वीरो बन जाओगे.. फिर मैं आऊँगा, पूछूँगा, वो इरफान कहॉ गया?.. तो पता चलेगा वो बम्बई चला गया.. वैसे मैं दिल्ली जाकर विपिन से पूछूँगा तुम्हारे बारे में..
(सूचना:सादतपुर में पार्टी का ऑफिस था और बाबा रोज़ सुबह टहलते हुए चाय पर विपिन भाई के साथ होते अख़बार पढ़ते, हंसी ठट्ठा करते ,दुनिया जहान की चिंताएं शेयर करते. पार्टी ऑफिस उनके सादतपुर के कई घरों जैसा घर था)
इस पूरे संवाद क्रम में बाबा का स्वर उंचा और थकता जा रहा था.उन्होंने खिड़की की तरफ मुँह कर लिया, इससे पहले वे अपने बेटे को निर्देश दे चुके थे कि इन लोगों को हटा दिया जाये. हम ढीठ थे, भक्त थे या कर्मयोगी अब ठीक से तय नहीं कर पा रहा लेकिन एक दूसरे को देखते कुछ ज्वार के थमने की उम्मीद लिए बैठे रहे. खिड़की की तरफ मुँह किये अब वो धीरे धीरे किसी अनदेखी दुनिया से मुखातिब थे और उधर से आ रही टुकड़ा भर धूप या मुट्ठी भर हवा से बातें करते रहे. हमें किसी ने हटाया नहीं. यह एक कवि का घर था और सब परिजन कवि के स्वभाव से परिचित थे. इसमे १०-१५ मिनट गुज़रे. करीब था कि बाबा सो गए हों. किसी भीतरी स्वरयंत्र से आ रही या खींच कर लाई जा रही आवाज़ से यही एहसास होता था कि वो किसी अन्य दुनिया से संवाद में व्यस्त हैं. कब वो वापस इस दुनिया में आये नहीं मालूम लेकिन हमने सूना.. अरे भाई सुकांत! पानी वानी पिलाओ इन लोगों को.यह सुन कर हम एक ओर आश्वस्त हुए कि हम बेआबरू होकर नहीं निकलेंगे दूसरी ओर 'इन्टरव्यू जो हो ना सका' की एक पंक्ति हमारी असफलता की कहानी कह रही थी. अब मुझे उनकी मृत्यु का वर्ष याद नहीं लेकिन तब से थोड़े दिनों पहले उनके पैतृक गाँव में उनकी बीमारी का सुनकर जब कॉमरेड विनोद मिश्र और साथी मिलने पहुंचे तो मुझे मालूम हुआ कि वो दूसरी बातों के अलावा ये भी पूछने लगे, "इरफान का क्या हाल हैं ?"
Saturday, January 14, 2012
Thursday, January 5, 2012
Wednesday, January 4, 2012
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