दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Friday, September 28, 2007

राजधानी एक्सप्रेस, सिगरेट और माट्साब की बेहोशी


आगरा रेलवे स्टेशन. 27 सितंबर 2007 की शाम. ट्रेन के इंतज़ार में हूं. ट्रेन के आने का वक़्त हो चुका है. राजधानी धड़धड़ाती हुई फ़ौरन अभी गुज़री है. महसूस करता हूं कि इस रफ़्तार को लेकर शिकायती स्वर कहीं भीतर से सिर उठा रहा है. ग़ौर करता हूं कि सिगरेट सुलगाये हुए कितनी देर हुई. एक घंटा पहले सुलगाई थी पिछली सिगरेट. हाथ अनायास ही जेब तक पहुंचता है और मैं सिगरेट जलाता हूं.
दरअस्ल सिगरेट के लिये मैंने जो जगह चुनी थी वो एक नीम अंधेरे में पड़ा कोना था. रेलवे स्टेशन एक सार्वजनिक स्थान है और आपकी ही तरह मुझे भी सार्वजनिक स्थानों पर सिगरेट का पिया जाना उतना अच्छा नहीं लगता है. बहरहाल मैंने सिगरेट जैसे ही सुलगाई मेरे चेहरे पर एक खिलौना टाइप टॉर्च से आती रोशनी पड़ी. एक क्षण को तो ये हरकत मुझे क़ाबिल-ए-ऐतराज़ लगी लेकिन दूसरे ही पल मैंने खुद को संयत बनाया. मेरे सामने पड़ी बेंच पर एक लड़का बैठा था, जो अब मुझसे इशारे से माचिस मांग रहा था. बीड़ी उसके हाथ में थी. अब समझ में आया कि टॉर्च वो माचिस के लिये ही चमका रहा था.
"क्या नाम है तुम्हारा?"
"रजनीकांत"
"बीड़ी कब से पीते हो?"
"छः-सात दिन हुए"
"क्या करते हो?"
"कुछ नहीं"
"क्या खाया"
"भूखा हूं"
"सुबह क्या खाया था?"
"पूड़ी-सब्जी"
"पैसा कहां से आया?"
"ट्रेन में झाड़ू लगाई थी तो चार रुपये मिल गये थे"
"दिन में पैसा नहीं मिला?"
"कोई देता नहीं...बोलते हैं भाग जाओ."
"कहां जाओगे?"
"टूंडला...वहां मेरा घर है"
"कहां से आ रहे हो?"
"दिल्ली से...रास्ते में टीटी ने उतार दिया...जंगल में...मैंने बोला जंगल में मै क्या करूंगा? बोला उतर जाओ. उतर गया फिर कोई गाड़ी आई तो उसमें लटक गया और यहां आ गया."
"दिल्ली क्या करने गये थे?"
"भाग गये थे"
"क्यों?"
"माट्साब ने मारा और मैं भाग आया."
???
"बहुत जोर से मारा. मेरी ये उंगली कट गयी"
मैंने देखा उसकी उंगली पर अब भी घाव था.मैंने पूछा-
"क्यों मारा?"
मैं पांच मे पढ़ता था. माट्साब एक अच्छर पूछने लगे.नहीं बता पाया तो मारने लगे. मैं रोने लगा फिर भी वो मारते रहे. मैने उनका फोता पकड़ कर इतनी जोर से दबाया कि वो चिल्लाने लगे और बेहोस हो गये. सब मास्टर आ गये और मैं भागा. भागते-भागते मैं नदिया पर पहुंचा अपने ये उंगली धोई. बांधने के लिये कपड़ा भी नहीं था. पता नहीं ये उंगली टूट गयी है या बची है?"
मुझे हंसी आ गयी. अब वो मुझसे खुल चुका था और शायद उसे लग गया था कि मैं उसे कोई नैतिक उपदेश नहीं दूंगा.हंसते-हंसते मैं पंजों के बल वहीं बैठ गया. और समझने लगा कि लड़का बेसिकली भगोड़ा और आवारा नहीं हैं. यह स्कूल मुक्त दुनिया में उसका छठा-सातवां दिन था और वो अपनी दोपहर की भूख के बावजूद हंस सकता था.
"अब क्या करोगे?"
"जो राम चाहेगा वही करूंगा."
"राम क्या चाहता है?"
"अभी तो राम चाहता है कि मै रेल में झाड़ू लगाऊं"
"लेकिन रेल में झाड़ू लगाने से तो तुम्हें खाने को नहीं मिलेगा?"
"लेकिन घर पर रहने से तो मास्टर वहां भी आ जाएगा ढूंढते हुए?"
????
लड़का मुस्कुराते हुए अपने पैंट की जेब में हाथ डालने के लिये टेढ़ा होता है.इस बीच उसकी बीड़ी कई बार बुझती है जिसे जलाने के लिये मैं हर बार उसे माचिस देता हूं.
"मुझे रेल में एक चीज मिली है...गंदी चीज" कहते हुए उसके चेहरे पर जुगुप्सा स्पष्ट है.
लड़का एक काग़ज़ की कतरन निकालता है. अंधेरे में कुछ स्पष्ट नहीं है लेकिन अनुमान सही निकलता है.मैं इस ढाई इंच चौड़ी और कोई चार इंच लबी कागज़ की रंगीन कतरन को देखने के लिये रोशनी तलाशता हूं.लड़का मुझे आवाज़ देता है क्योंकि रोशनी का बंदोबस्त है उसके पास. लड़का अपनी टॉर्च की रोशनी में मुझे वह कतरन दिखाता है. इसमें संभोग की तीन मुद्राएं छपी हैं.
"क्या करोगे इसका?"
"फाड़कर फेंक दूंगा, जला दूंगा"
"तुम कहां जा रहे हो?"
"दिल्ली"
"तुम्हारी गाड़ी आ रही है."
"टूडला में किस स्कूल में पढ़ते थे?"
"रामदास पब्लिक स्कूल"
"फ़ीस कितनी थी?"
"तीन सौ रुपये"
"तुम्हारे बाप क्या करते हैं?"
"रिक्शा चलाते हैं. अब क्या होगा. अब न तो तीन सौ रुपये जायेंगे न मार पड़ेगी"
"टूंडला क्यों जा रहे हो?"
"देखूंगा सब ठीक तो है? वहां कुछ नहीं कर सकता क्यों कि वहां मास्टर लोग ढूंढ लेंगे.सोचता हूं किसी होटल में लग जाऊं."
"होटल की ज़िंदगी बेकार है.तुम किसी मोटर मैकेनिक के साथ लग जाओ"
"कहा?"
"तुम अपनी नानी के यहां चले जाओ"
"नानी तो दादरी में रहती हैं वो तो बहुत दूर है"
"दूर नहीं है तुम अभी घर से वहां का पता लेलेना और चले जाना. रेल में झाड़ू लगा कर कुछ नहीं होगा."
तब तक ट्रेन आजाती है मैं उसे दस का एक नोट थमाता हूं जिसे वो मुट्ठी में पकड़े हुए मुझे जाते देखता है.
"ए तुम क्या करते हो"
मैं उसे बताता हूं और यह भी कि मेरा नाम इरफ़ान है."
"इरफ़ान तो मेरे पिताजी का भी नाम है. तुम मेरे बाबू तो नहीं हो?"

Tuesday, September 25, 2007

कविता निजी मामला नहीं है

कविता आदमी का
निजी मामला नहीं है
एक दूसरे तक पहुंचने का पुल है

अब वही आदमी पुल बनाएगा
जो पुल पर चलते आदमी की
सुरक्षा कर सकेगा.
-----------------------
कुमार विकल
एक छोटी सी लड़ाई

Sunday, September 23, 2007

चांद और लुच्चे

ये एक संकरा रास्ता था
जहां पहुंचने के
लिये कहीं से चलना
नहीं पड़ता था

या ये एक मंज़िल थी
समझो
आ जाती थी बस

फिर रात गहराती थी
और चांद की याद भी किसी को नहीं आती थी

एक दिन
जब धूल के बगूलों पर सवार
कुछ लुच्चे आये
(वो ऐसे ही आते-जाते हैं सब जगह बगूलों पर ही सवार)

बाल बिखरे हुए थे उनके

बोले-
नींद खुलने से पहले ही जागा करो...
और ऐसी ही कई बातें.

चांद उत्तर के थोड़ा पूरब होकर लटका हुआ था

किसी को परवाह भी न थी
उन्हें भी नहीं

छटनी में छांटे गये ये लुच्चे
बस छांद की थिगलियां
जोड़ते रहते हैं
रातों में.
---------------------
इरफ़ान
12 जनवरी 1994

कांटे और शहद

जब रात हुई
तो कुछ बात हुई
और बात भी कैसी
थोड़ी कंपकंपी थी
और उस जंगली घास
के असंख्य कांटों की बूदों
पर ठहरी ओस जैसी

और जैसे-जैसे हम
उंगलियों से
घास को छूते
गहरा और गाढ़ा शहद हमारे प्यालों में
टपकता जाता

क्या चखकर ही मिठास
जानी जा सकती है?
---------------
इरफ़ान
3 जनवरी 1994

इरफ़ान के जन्मदिन पर

भाई चंद्रभूषण ने 13 मई 1994 को मेरे जन्मदिन पर यह कविता मेरे लिये लिखी

आओ आज रात
मारें धरती को एक लात
निकाल बाहर करें
इसे चकराते रहने की नियति से

आओ पकड़ें आज
एक किनारे से आसमान की चादर
लपेट लें उस पर लेटे ईश्वर को
ढकेल दें उसे छत के नीचे
आओ खड़ा करें
इस चुप-चुप दुनिया में
आज इतना भारी विवाद
कि कोई विवाद न रह जाए
आज के बाद.

आपस में बातें क्यों नहीं करनी चाहिये?

दो अजनबी
राजमार्ग पर
आमने-सामने से गुज़र रहे हैं

उन्हें आपस में बातें क्यों नहीं करनी चाहिये?
-----------------------
वाल्ट ह्विट्मैन

त्रासदी का ख़ाका

चिड़िया नाम की नदी को
अपना असली रूप याद आता है
और एक शाम बस
वह उड़ जाती है

अंटोन नाम का एक आदमी
उसे अपने खेत पर
उड़ते देखता है
और अपनी बंदूक़ से बस
उसे मार गिराता है

चिड़िया नाम की प्राणी
अपनी स्वार्थी करतूत पर देर से पछताती है
(क्योंकि अचानक सूखा तो बस पड़ता ही है)

अंटोन नाम का एक आदमी
(अफ़सोस इसमें कुछ अजब नहीं)
गुनाह में अपनी हिस्सेदारी के बारे में बस बेख़बर है

अंटोन नाम का एक आदमी
(यह जान कर कुछ संतोष होता है)
वहां के हर आदमी की तरह बस
प्यास से मर जाता है.
-----------------------------
ख्रिश्टियान मोर्गेनश्टेर्न

पाठ

'ईश्वर', मैंने कहा,"सिर्फ़ एक आविष्कार है"------

और फ़ौरन क्लास के बच्चों ने दुहराया
'मोटर, हवाई जहाज़, टेलीविज़न, वीडियो, ईश्वर'
------------
डीटर लाइज़ेगांग

और मैंने हमेशा सोचा

और मैं ने हमेशा सोचा:
सबसे सादा शब्द ही काफ़ी रहेंगे

जब मैं बतलाता हूं कि चीज़ें कैसी हैं तो
हर एक का दिल छलनी-छलनी हो जाता होगा.
यह कि अगर तुम अपने वास्ते
ख़ुद खड़े न हुए तो
गिर जाओगे

बेशक यह तो तुम देखते ही होगे.
-----------------------
बर्तोल्त ब्रेख़्त

आरामदेह गाड़ी में सफ़र

खुले इलाक़े में एक बरसाती सड़क पर
एक आरामदेह गाड़ी में सफ़र करते हुए
शाम को हमने एक फटेहाल आदमी को
कोर्निश करते हुए गाड़ी में बिठाल लेने का
इशारा करते हुए देखा

कार की छत थी और अंदर भी काफ़ी जगह थी और हम चलते रहे
और मैंने मुझे चिड़चिड़ी आवाज़ में कहते सुना: नहीं हम किसी को अपने साथ नहीं ले सकते

हमने काफ़ी सफ़र तय किया, शायद एक दिन के कूच का

कि अचानक मुझे अपनी उस आवाज़ से
अपने उस बर्ताव से
और इस पूरी दुनिया से धक्का लगा.

--------------------------------
बर्तोल्त ब्रेख़्त
1937

पहिया बदलना

मैं सड़क के किनारे बैठा हूं
ड्राइवर पहिया बदल रहा है

जिस जगह से मैं आ रहा हूं वह मुझे पसंद नहीं
जिस जगह मैं जा रहा हूं वह मुझे पसंद नहीं

फिर क्यों बेसब्री से मैं
उसे पहिया बदलते देख रहा हूं.

--------------------------
बर्तोल्त ब्रेख़्त

शीर्षकहीन कविता

अपने हाथों का तकिया बना लो.

आकाश अपने बादलों का
धरती अपने ढेलों का
और गिरता हुआ पेड़
अपने ही पत्तों का तकिया बना लेता है.

यही एकमात्र उपाय है
गीत को ग्रहण करने का
निकट से उस गीत को जो
पड़ता नहीं कान में,
जो रहता है कान में.
एकमात्र गीत जो दोहराया नहीं जाता.

हर व्यक्ति को चाहिये
एक ऐसा गीत जिसका
अनुवाद असंभव हो.

रोबर्तो हुआरोज़ अर्जेंटीना,1925
-----------------------
अनुवाद:कृष्ण बलदेव वैद

कविता पाठ कोलतार बिछानेवालों के लिये

स्वागत कॉमरेड कवि
कब सुना सकेंगे हमें अपनी कविताएं

काम ख़त्म होने के बाद चलेगा

काम ख़त्म होने के बाद लोग
थके होते हैं
हड़बड़ी होती है उन्हें अपने घर पहुंचने की

सनीचर कैसा रहेगा

सनीचर को लोग काम निपटाते हैं
धोना-सीना करते हैं
और चिट्ठियां लिखते हैं--घर

इतवार को चलेगा

इतवार को लोग घरों से निकलते हैं
जवान लोग अपनी छोकरियों से मिलने
बुज़ुर्ग स्टेशनों को
अपनी रेलों का इंतज़ार करने के लिये

तो वक़्त नहीं है आपके पास कविता के लिये

वक़्त नहीं है हमारे पास देख ही रहे हो तुम
तो भी निकालेंगे मिलके अपन-तुपन.

वास्को पोपा
यूगोस्लाविया,1922
-------------------------------
अनुवाद: सोमदत्त

Tuesday, September 18, 2007

रंग दिल की धड़कन भी लाती तो होगी

भाई जितेन्द्र ने एक गाने को तलब किया था, देर हुई क्षमा चाहता हूं.
लीजिये हाज़िर है फ़िल्म पतंग (1960) में लता का गाया ये गीत.












गीत:राजेंद्र कृष्ण-------------------संगीत:चित्रगुप्त

Sunday, September 16, 2007

एमएफ़ हुसेन को उनकी 92वीं सालगिरह पर मुबारकबाद


हमारे दौर के बड़े ही मक़बूल कलाकार हुसेन का आज जन्मदिन है. आजकल वो जलावतनी की ज़िंदगी जी रहे हैं और विकास की होड़ में 'आगे' बढ़ते देश को इस बात पर ज़रा भी शर्म नहीं है.
हुसैन एक मुकम्मल कलाकार हैं.
उनकी आत्मकथा सुनो एमएफ़ हुसेन की कहानी को सुनने के बाद आप एक बिलकुल नयी अनुभूति पर पहुंचते हैं.
इस आत्मकथा को मैंने उनके सहयोग से तैयार किया है. उनके लिखे एक भी शब्द के साथ मैंने छेड़छाड़ नहीं की है. यह उनकी आत्मकथा एमएफ़ हुसेन की कहानी अपनी ज़ुबानी की अविकल प्रस्तुति तो है ही, एक मायने में यह ऑडियो बुक उनकी बुक से अलग और अनोखी भी है, क्योंकि हुसेन साहब ने इस ऑडियो बुक के लिये पांच नये अध्याय ख़ास तौर पर लिखे हैं.
हैरत होती है कि एक नॉन राइटर ऐसा अच्छा गद्य लिख सकता है. एक बार इस ऑडियो बुक को आप सुन लें तो सरस्वती आदि प्रश्न आपको बचकाने और एक हद तक अहमक़ाना लगने लगेंगे.
एक-एक घंटे की इन पांच ऑडियो CDs के पहले वॉल्यूम से सुनिये वो दो हिस्से जिनमें वो अपने दादा को याद करते हैं.दादा जो उनके लिये सब कुछ थे. आइये हुसेन साहब के इस ख़ास तर्ज़े बयां को सुनते हुए उन्हें जन्मदिन की बधाइयां दें.

दादा की उंगली पकड़े एक लड़का









दादा की अचकन







-------------------------------------------------------------------------------------
इस ऑडियो बुक से एक और ट्रैक सुनिये यहां

तीसरी क़सम और शंकर-शंभू क़व्वाल


मेरी बहुत इच्छा है कि मैं शंकर-शंभू क़व्वाल भाइयों के बारे मे वो सब जानूं जो मिसाल की तौर पर अभिषेक बच्चन या जॉर्ज बुश के बारे मे जानता हूं.इमरान हाशमी कौनसा कुत्ता पालता है,मल्लिका शेहरावत किस ब्रांड के अंडरगार्मेंट्स पहनती है या हिमेश रेशमिया कौन सा साबुन लगाता है...


शंकर-शंभू क़व्वाल भाइयों के बारे में और अधिक जानने का हमारे पास क्या ज़रिया है?
इनके अलावा जिन नामों का ज़िक्र ऊपर किया गया है और जिन क़ाबिल-ए-ज़िक्र लोगों की तमाम हगी-मुती बातें हमें बताई जाती हैं,(उनकी तुलना में)बताने वालो के एजेंडे में शंकर-शंभू कभी शामिल नहीं होंगे.
उम्मीद है कि ऐन इसी वक़्त जब ये लाइनें लिखने के लिये मैं कीबोर्ड खटका रहा हूं उसी वक़्त कोई पीटर मैक्लुहान या कोई सिंडी जॉर्ज अपनी चप्पलें चटकाते हुए भारत की गलियों और लायब्रेरियों की ख़ाक छान रहे हों.
इसमें कोई हैरत नहीं होनी चाहिये कि इस जिस 'छोटी'सी बात के लिये मैं सिर धुन रहा हूं वो छोटीसी बात अमेरिकन और ब्रिटिश डैटासेंटरों मे आसानी से उपलब्ध हो. खैर...

शैलेंन्द्र की फ़िल्म तीसरी क़सम को कल जब मैंने FM पर पेश किया तो एक बार फिर उस गाने गाने को देख सुनकर मज़ा आ गया, जिसकी कल्पना और प्रस्तुति के पीछे शंकर-शंभू की मौजूदगी बरामद होती है.
आप जानते हैं कि शैलेंद्र ने इस फ़िल्म को किस फ़्रेमवर्क में कंसीव किया था. जब कहानी के अलावा संवाद भी खुद रेणुजी ही लिख रहे थे और भरसक कोशिश कर रहे थे कि अपने अनुभवों को फ़िल्मी परदे पर थोड़ी प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया जाए तब जनाब राजकपूर उस पूरे डिक्शन और सेंसिबिलिटी का माठा करने में लगे हुए थे. बासु भट्टाचार्य बेचारे क्या करते एक ग्लॉस पैदा करने का दबाव तो उनपर व्यावसायिक ज़रूरतें भी बनाए हुए थीं. सुब्रतो मित्रा ज़रूर उस आउटडोर टेरेन में पसीना पोछते हुए हमारे आंसुओं को पोछने में लगे हुए थे और उन्होंने अपने स्टैंडर्ड का काम कर दिखाया. शंकर-जयकिशन ने बहुत ही मनोयोग से संगीत बनाया और उससे किसी को शिकायत नहीं है.कहते हैं कि उस इलाक़े के एथ्निक म्यूज़िक से बहुत वाक़िफ़ न होने के बावजूद उन्होंने परसनल इंटरेस्ट लेकर ज़रूरी रिसर्च की, और एक ऑर्गेनिक संगीत रचने में(बाद में मशहूर हुए संगीतकार) दत्ताराम और मशहूर गोआनी अरेंजर सेबास्टियन ने एड़ी-चोटी एक कर दी. ध्यान रहे कि ये दोनों शंकर-जयकिशन को असिस्ट कर रहे थे.
गुरु लच्छू महाराज ने एक नौटंकी के लिये अपनी कोरियोग्राफ़िक एक्सपर्टीज़ ऑफ़र करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि क्लासिकल डांस उन्हें जीवन से ही मिला था.
फ़िल्म मे नौटंकी के सुपरवाइज़िंग डायरेक्टर शंकर-शंभू थे और जिस तरह की जीवंत स्थितियां उन्होंने अपनी सूझबूझ से पैदा की हैं वो हमेशा कन्विंसिग लगती हैं. उन्होंने लैला-मजनू उर्फ़ मकतब की मोहब्बत ड्रामे का एक टुकड़ा भी इस फ़िल्म में रीक्रियेट किया है जिसे फ़िल्म इतिहास में एक ख़ास जगह मिलनी चाहिये और थीमैटिक फ़िल्मों में आइटम कैसे डालें के पाठ्यक्रम नें इसे शामिल किया जाना चाहिये. हालांकि यह देखने से ताल्लुक़ रखता है लेकिन सुनिये








चलते-चलते: फ़िल्म में सिचुएशन ये है कि एक चंडूख़ाने में कुछ लोग गप्पें मार रहे हैं जिसमें फ़िल्मी दुनिया और नाच-नौटंकी को लेकर कुछ कुतूहल का माहौल है. इसी चंडूख़ाने में इस बातचीत का क्रमभंग करते हुए हीरामन एक लोटा चाय लेने पहुंचता है. रेणुजी ने जिस भाषा को तीसरी क़सम में चलाना चाहा होगा उसका एक नमूना सुनिये.






Tuesday, September 11, 2007

मेरी पसंद के गीत- आठ

आज मैं इज़हार नहीं कर सकता कि पॉडकास्टिंग ने मुझे जो मौक़ा दिया है उससे मैं आप तक इस भजन को पहुंचा कर कितना खुश हूं.
जब तक मैंने एमएस की ये रचना नहीं सुनी थी तब तक मैं यही समझता था कि भक्ति की रागात्मकता घुरमा छूटने के साथ ही वहीं छूट गयी है. 1991 में अपने मद्रास प्रवास के दौरान भाई आर विद्यासागर के सानिध्य में थोड़ा सा कर्नाटक म्यूज़िक मेरे हिस्से में भी आया यानी कर्नाटक संगीत की दुनिया में मेरी खिड़की खुली.वहीं मुझे एम.एस.सुब्बुलक्ष्मी का यह भजन सुनने को मिला था और मेरे संग्रह में सहेजकर रखा हुआ है.
इस रचना के आनंद के बीच में मैं अपनी मूर्खतापूर्ण संगीत व्याख्याओ को लाकर आपकी गालियों का हिस्सेदार नहीं बनना चाहता इसलिये पेश करता हूं यह भजन.
बस इतना कहने से ख़ुद को नहीं रोक पा रहा हूं कि अगर इस क़िस्म की आराध्यरम्यता मैं स्वयं में विकसित कर पाऊं तो यक़ीन मानिये आज ही नास्तिकता की पटरी से उतर कर आस्तिकों की क़तार में खड़ा हो जाऊं. दिल पर हाथ रखकर कहिये कि माता के जागरणों-जगरातों में जो संगीत होता है, हमारे मंदिरों में कीर्तनों का जो रूप 'अब' जड़ें जमा चुका है और जिस ओउम भूर्भुव: स्व: की "महान" प्रातः श्रवणीय संगीत प्रस्तुति से पूरा हिंदी समाज अपना सीना फुलाए घूमता है, उसे इस रचना को सुनकर शर्मिंदा नहीं होना चाहिये?

Monday, September 10, 2007

मेरी पसंद के गीत- सात


चड्ढी पहन के फूल खिला है...से पहले भी गुलज़ार ने बच्चों के लिये लिखकर अपनी इस प्रतिभा का परिचय दिया है. और किसी भी बात के लिये उनकी बुराई की जाये लेकिन इस गाने में उन्होंने तारीफ़ के क़ाबिल ही काम किया है. आर डी बर्मन ने बड़ी ही सरल सी धुन से इसे सजा दिया है. पेश है 1977 की फ़िल्म किताब से यह गाना. इसे और पिछले गाने झूम बराबर झूम को हम FM पर नहीं बजा सकते क्योंकि झूम वाले में शराब की बात है और इसमें प्रोडक्ट प्रमोशन का डर है और ये दोनों ही बातें ब्रॉडकास्टिंग कोड के अनुसार वर्जित हैं.
आवाज़ें शिवांगी और पद्मिनी कोल्हापुरे की हैं.







Saturday, September 8, 2007

झूम-बराबर झूम शराबी


आवाज़ों और ख़ुशबुओं में क्या जादू है कि वो आपकी गुज़री यादें ताज़ा कर देती हैं. अब सुनिये ये क़व्वाली और पहुंच जाइये पच्चीस-तीस साल पुराने एक दौर में. आवाज़ें हैं अज़ीज़ नाज़ां और साथियों की.











शब्द: नाज़ां शोलापुरी-------------------------संगीत: अज़ीज़ नाज़ां

मेरी पसंद के गीत- छः


यूं तो मोहम्मद रफ़ी के गाये गीतों की यारों के दिल में बहुत जगह है लेकिन मेरे लिये उनका ये गीत उनके बहुत से गीतों पर भारी है.फ़िल्म ऊंचे लोग (1965)
---------------------------------------

जाग दिल-ए-दीवाना रुत जागी वस्ल-ए-यार की
बसी हुई ज़ुल्फ़ में आयी है सबा प्यार की - २
जाग दिल-ए-दीवाना

दो दिल के कुछ लेके पयाम आयी है
चाहत के कुछ लेके सलाम आयी है - २
दर पे तेरे सुबह खड़ी हुई है दीदार की
जाग दिल-ए-दीवाना ...

एक परी कुछ शाद सी नाशाद सी
बैठी हुई शबनम में तेरी याद की - २
भीग रही होगी कहीं कली सी गुलज़ार की
जाग दिल-ए-दीवाना रुत जागी वस्ल-ए-यार की
बसी हुई ज़ुल्फ में आयी है सबा प्यार की
जाग दिल-ए-दीवाना








गीत: मजरूह सुल्तानपुरी---------------------------------------संगीत: चित्रगुप्त

मेरी पसंद के गीत - पांच

ये गीत है पाकिस्तान की फ़िल्म दुल्हन(1963) का. फ़िल्म में नय्यर सुल्ताना, दर्पण और रानी वग़ैरह हैं. गीत मालूम नहीं किसने लिखा है, संगीत रशीद अत्रे का है.

रशीद अत्रे
ये सब बातें न जाने क्यों मैं लिख गया. मुद्दे की बात ये है कि ये गाना मैंने 1984 में इलाहाबाद के कटरा मार्केट में जब पहली बार सुना तो न तो मुझे ये मालूम था कि ये फ़िल्मी गीत है और फ़िल्म पाकिस्तान की है. और न ही ये मालूम था कि ये आवाज़ नूरजहां की है. फिर इन सब बातों की ज़रूरत भी क्या थी!
मैं किसी दुकान के inaugural function में गया था और वहीं ये गाना बज रहा था. मैं तीन महीनों तक दुकानवाले के चक्कर काटता रहा था और आख़िरकार ये गाना मुझे मिल गया था. तब से इसे संजो कर रखे हुए हूं और आपके सामने पेश करता हूं.






Friday, September 7, 2007

मरना भी मोहब्बत में किसी काम न आया


सी.रामचंद्र ग़ज़ब के आदमी रहे होंगे. सुनिये क़व्वाली के ट्रेडीशनल फ़ॉर्म को किस ख़ूबसूरती से उन्होंने यहां पेश किया है. गायक भी उन्होंने ट्रेडीशनल ही लिये हैं. रघुनाथ जाधव क़व्वाल और साथियों को इस कंपोज़ीशन में गाना कितना सुकून दे रहा होगा, ये तो वही जानते रहे होंगे. एक बार फिर आज़ाद(1955),शब्द राजेंद्र कृष्ण.







मेरी पसंद के गीत- चार

सी.रामचंद्र एक बाग़ी संगीतकार थे, इस बात से मैं सहमत हूं.
सुनिये आज़ाद (1955) का ये गीत. लिखा है राजेंद्र कृष्ण ने.
लता मंगेशकर मेरी पसंदीदा गायिकाओं में नहीं हैं लेकिन ऊषा मंगेशकर ने इस गाने में एक अलग ही जोश भर दिया है.
मेरी पसंद श्रूंखला की चौथी कड़ी.







Thursday, September 6, 2007

मेरी पसंद के गीत- तीन

यूं तो येसुदास ने कुछ बहुत ही दिलकश गाने गाये हैं लेकिन 1998 की फ़िल्म स्वामी विवेकानंद में उनके गाये इस गीत की मेरे मन में अलग ही जगह है. इसमें एक दुर्लभ वीतराग मौजूद है.










संगीत: सलिल चौधरी ----------------- गीत: गुलज़ार

Tuesday, September 4, 2007

मेरी पसंद के गीत- दो


ये है 1966 की फ़िल्म आख़िरी खत का गीत. आवाज़ भूपिंदर की है और गीत कैफ़ी आज़मी का. संगीत ख़ैयाम का है. मेरी पसंद श्रृंखला की दूसरी कड़ी.






संगीत का वह संसार जिसमें हम पले-बढ़े


पेश है हमारे भावबोध का निर्माण करने वाली सांस्कृतिक हलचलें. इस श्रृंखला की पहली कड़ी.