बस बैठे-बैठे अचानक आज न जाने क्यों नरेंद्र श्रीवास्तव की याद आ गयी। इलाहबाद यूनिवर्सिटी के छात्र जीवन में जिन बड़े ही रोचक व्यक्तियों की यादें अमिट हैं , नरेंद्र भाई उनमें से एक थे। कब और क्यों उनके साथ नियमित मुलाक़ातें होने लग गयी थीं अब याद नहीं आता लेकिन थोडा सा इसरार करते ही उनका गाने के लिए तैयार हो जाना बहुत अच्छी तरह याद है। खुद का लिखा बड़े मनोयोग से गाते थे, जबकि उस दौर में हम उनकी गायकी की शैली का मज़ाक़ भी बना लिया करते थे। फैज़ाबाद या रायबरेली से वो इलाहाबाद आये थे और हम लोगों से सीनियर ही थे लेकिन छोटे बड़े का एहसास उनके साथ कभी नहीं हुआ। दारागंज के जिस कमरे में वो रहते थे उसमें जाने का मुझे दो एक बार संयोग हुआ और उन्हें बहुत सादा जीवन जीता हुआ ही मैंने पाया। गर्मियों में भी उनको मोटे जूट के कमीज पतलून पहने देखा जा सकता था। एक खादी का थैला बग़ल में दबाए नरेंद्र भाई हॉस्टल आ जाते तो उनसे कुछ पत्रिकाएं हाथ लग जाती थीं और उनकी गवनई का आनद भी। ब्योरा तो नहीं याद पर बताते हैं बड़े ही नाटकीय घटनाक्रम में करीब बीस साल पहले उनका देहांत हुआ। शायद उनका कोई काव्य संग्रह भी मौजूद हो लेकिन संतोष होता है कि मेरे पास उनके उस गीत की रिकॉर्डिंग है जो उनकी पहचान सा बन गया था।