दुनिया एक संसार है, और जब तक दुख है तब तक तकलीफ़ है।

Tuesday, January 28, 2014

ब्रेख्त-4

इस तरह मैं
खुद पर यकीन नहीं करने देता किसी को
हर एक यकीन अस्वीकार कर देता हूं
मैं ऐसा करता हूं
क्योंकि मुझे पता है: इस शहर के हालात ने
यकीन करना कर दिया है नामुमकिन.


II ब्रेख्त II

ब्रेख्त-3

मुझसे कहा जाता है: खा और पी. मौज कर, कि है तेरे पास
पर कैसे खाऊं और पियूं

खाऊं उस भूखे से छीना हुआ?
और पियूं उसके गिलास में जो मर रहा प्यास से वहां
फिर भी मैं खाता और पीता हूं.


II ब्रेख्त II

ब्रेख्त-2

हाय रे हम
जो बनाना चाहते थे आधार मित्रता का
खुद ही नहीं बन पाये मित्रवत


II ब्रेख्त II

ब्रेख्त-1

क्यों दर्ज करता हूं मैं केवल यह
कि चालीस साल की देहातिन
झुकी हुई चलती है?
लड़कियों के स्तन सदा की तरह गर्म हैं!
क्यों दर्ज करता हूं मैं केवल यह


II ब्रेख्त II

बीसवीं सदी

एक ताबूत-
किसी बच्चे का चेहरा जिस पर
एक किताब किसी कौए के पेट पर लिखी
एक हिंस्र पशु छुपा हुआ किसी फूल में

एक चट्टान
किसी पागल के फेफड़ों से सांस लेती हुई

ये है वह
बीसवीं सदी.


एडोनिस (अली अहमद सईद) सीरिया

वह हमारी मां है

वह हमारी मां है
सदा हम पर रहती हैं उसकी आंखें
माफ़ भी कर देती है कभी वह हमको

आओ बच्चों!
हम चढ जाते हैं उसकी गोद में
धनवान नहीं हैं हम
उसका देखना ही हमारी एकमात्र रोटी है
उसका अकेलापन हमारी एकमात्र छत है

आओ बच्चों
क्रूस के दिन हम जला देंगे- कविताएं
रात के खाने के वक़्त
जला देंगे युद्ध को बिना दियासलाई के.


II शौकी अबि शकरा (लेबनान) II

थकावट

हम शुरू हुए थे
पृथ्वी को फांदने के लिये
- दो सांड़ों की तरह
  और ढह गये
  कमरे के एक कोने में
  सूरज की छाया की तरह.


- सांदी यूसुफ़ (ईराक़)

Saturday, January 18, 2014

सागरिका सिन्हा: एक अकथ दुख

आजकल हम लोग जहां रह रहे हैं, वो शहर का बाहरी हिस्सा है. संजय गांधी जैविक उद्यान (चिडियाघर) यहां से नज़दीक है.
कल शाम जब मैं और अनिल यहां पहुंचे तो मुन्नी के साथ एक युवती भी बैठी मिली. इसके बारे में पूछ्ने पर पता चला कि उसका नाम सागरिका सिन्हा है. कोई छः दिन पहले उसे उसकी सास ने घर से निकाल दिया है. रहनेवाली कलकत्ता की है. कहां जायेगी यह सोचकर वह मां के पास कलकत्ता चली गयी. वहां उसने अपनी मां पर ज़ाहिर नहीं किया. शादी को कोई चार बरस पूरे हो चुके हैं. दो साल की बच्ची ही इन लोगों की एकमात्र संतान है. कलकत्ता से काफ़ी निराश लौटी. चारों तरफ़ नाउम्मीदी थी. कोई रास्ता न देखकर वह महात्मा गांधी सेतु से कूदकर आत्महत्या करने पहुंची. लेकिन बच्ची का चेहरा यादकर और आत्महत्या की तकलीफ़ भांपकर लौट आई. सीधे कोर्ट गयी. वहां किसी महिला मामलों की वकील को तलाशा. संयोग से किसी ने उसे कमलेश जैन तक पहुंचा दिया. कमलेश जैन बोलीं कि उसे मीना से मिलना चाहिये. इस तरह वह मीना के साथ आते-आते यहां आ गयी. अभी उसे फ़ौरन अपनी बच्ची चाहिये.
****
सागरिका की मां भी इस तरह के मामले का शिकार है. जब सागरिका कोई ढाई-तीन साल की थी तभी इसके पिता ने मां छोड़ दिया. मां अभी मामा लोगों के साथ रह रही है. सागरिका की पढाई लिखाई बंबई में मामा के यहां हुई. अभी वह इंटरमीडियेट में ही थी कि सीवान में उसे टीचिंग की एक नौकरी मिल गयी. वहीं उसकी शशांक नाम के एक सुंदर युवक से मुलाकात हुई, प्रेम हुआ और शादी भी. जिस स्कूल में वो पढा रही थी उसके मालिक शशांक के चाचा हैं. शादी तो हुई लेकिन लड़का भूमिहार और लड़की बंगाली, इसे कैसे पचाया जाता? शशांक के पिता (हरिशंकर शरण) यहां पटना के बड़े नामी ऑर्थोपीडिक सर्जन हैं और मां (शारदा सिन्हा) यहीं पटना वीमेंस कॉलेज में पॉलिटिकल सायंस की प्रोफ़ेसर. घर में शादी को कभी स्वीकृति नहीं मिल सकी. जात के अलावा एक वजह ये भी थी कि लड़की अपने साथ भारी-भरकम दहेज भी नहीं ला सकी थी.
शशांक शादी से पहले भी नशे का आदी था और अब भी है.
सागरिका ने सोचा था कि शादी के बाद वो 'इनकी' नशे की आदत छुड़वाने में कामयाब हो जायेगी. लेकिन ये हो नहीं पाया. ख़ुद वो नौकरियां करती रही. एक हाउज़िंग स्कीम में भी नौकरी की, जिसे अभी दस दिन पहले छोड़कर एक नयी नौकरी ज्वॉएन करने ही वाली थी कि इस लफ़ड़े ने इस नौकरी को भी अधर में लटका दिया है.
शशांक को लेकर अब भी उसके मन में एक सॉफ़्ट कॉर्नर है. उसका मानना है कि घर से हमेशा ही नेग्लेक्ट किये जाने की वजह से ही शशांक नशे का लती है. आज वो इन्जेक्शन्स से नशीली दवाएं लेता है और उसका हिल चुका आत्मविश्वास उसे कुछ करने नहीं देता. घर में शशांक की कोई गिनती ही नहीं होती. आमतौर पर खुशहाल दिखनेवाले परिवार के भीतर हमेशा एक कलह का माहौल रहता है. पिछले पंद्रह साल में शायद ही उसकी सास और ससुर के बीच बनी-पटी हो.
उस दिन झगड़ा काफ़ी बढ गया और सास का आदेश हुआ कि सागरिका को घर से तुरंत चले जाना चाहिये. पति ने बताया कि उन दोनों का अब साथ में रहना संभव नहीं हो पाएगा. बच्ची (सुग्गी) को वह अपने पास ही रखेगा. ज़रूरत हुई तो बच्ची को लालन-पालन के लिये अपने भाई के पास भेज देगा. पति ने ये भी बताया कि पापा वगैरह तलाक़ के काग़ज़ात भी तैयार कर चुके हैं.
सागरिका के सामने बेटी की चिंता है. यहां आज उसका पांचवां दिन है और कोई ऐसा दिन नहीं गुज़रता जब वो अकेले में आंसू रोकती न दिखाई दे. धीरे-धीरे मिक्स-अप तो हो चली है लेकिन आगे क्या होगा, की चिंता उसे हमेशा खाए जाती है. तलाक़ वो चाहती नहीं है.
लेकिन फिर वही नशेड़ची पति, क्या होगा?

(शास्त्रीनगर, पटना, 7 अप्रेल, 1992)



हम बीस जन

तट छोड़ रहे हैं
नाव में बैठे हम बीस जन

मुहावरों में बीसियों लोग कहे जानेवाले
बीस जन कहे जायेंगे कविता में.

अब तक क्या करते थे ये बीस जन ?
बूढा बरगद बताता है "ये अपने होने का अर्थ तलाश रहे थे"

ये लड़का ध्वनियों के इस विराट जंगल में
अपने स्वर खो रहा है
तुम्हारे शब्दकोश में इसके लिये बदशक्ल
एक श्रेष्ठतम विशेषण रहा
शब्दकोश के पन्नों को एक-एक कर डुबाने का
उपक्रम चला रहे हैं
उसके दल के लोग

ये लड़की अपने पति के लिये बनाए रुमाल
पर कढाई आधी छोड़कर चली आई

यहाँ अटल गहराइयों पर डर का दामन छोड़
मेहदी हसन की ग़ज़ल में डूब उतरा रहे हैं ये बीस जन

तट पर खड़े तुम नहीं जान पाओगे
इन बीस जन के मन की बात.

(पटना, 10  अप्रेल, 1992 )

झाड़ियां- 4

एक दिन अचानक
ऐसा भी हुआ
कि जब मैं आईने के सामने
आया तो देखा
बाल सफ़ेद हो चुके हैं
और सांसों में घरघराहट है

दिन ऐसे गुज़रने लगे जब
किसी ख़त का कोई इंतेज़ार भी नहीं

शुक्र है कि
झाडियां पास हैं हवाओं को
संगीत देती हुई.

(ट्रेन, पटना से कानपुर, 28 फ़रवरी, 1991 )

झाड़ियां -3

जहां पेड़ नहीं हैं
वहाँ भी हैं - झाड़ियां
छुटपन में जब हम पेड़ पर चढ नहीं पाते थे
तब भी हम झाडियों से कुछ
टहनियां तोड़कर खेलते थे
और हमारी बकरी भी बहुत आसानी से
पिछली टांगों पर खड़ी होकर
पत्तियों का एक बड़ा हिस्सा खा जाया करती थी

और पेड़ों पर चढना तो हमेशा
असुरक्षित रहता था
पत्ते तोड़ते-तोड़ते गिरने का डर हमेशा

लेकिन झाडियों से
तीतर कई बार निकलकर
झुंडों में उड़ते देखे।

(ट्रेन, पटना से कानपुर, 28 फ़रवरी 1991 )  

झाड़ियां -2

परवाह नहीं
कि कोई हंसेगा
जो मैंने ये कहा कि
झाड़ियां मेरे लिए आत्मीय हैं
और जंगल  का स्मरण
 झाड़ियों ही को सबसे पहले
मेरे नज़दीक सरका देता है

पगडंडियों से गुज़रते हुए
की बार मैंने सांस लेते
सूना है इन कम्बल में दुबके
लोगों को

इनसे बातें भी की हैं

और जब कभी पगडंडियों
पर बहुत जल्दी होती है
और दौड़ने की कोशिश करता हूं
तो क़मीज़ का दामन
फांस लेती हैं  झाड़ियां
एक दिन जब मैंने
जल्दी में दामन छुड़ाने के लिये हाथ बढाया
तो एक कांटा
लहूलुहान कर गया.

(ट्रेन, पटना से कानपुर २८ फ़रवरी 1991)

झाडियां-1

और झाडियों के बारे में
इतना तो कह ही
सकता हूं कि
वे कम्बलों में दुबके लोग
ही हैं जो
झंडे की बंदरबांट में शामिल नहीं थे
उस रात जब
रेलों में लोग ढूंढ ढूंढ कर मारे गये,
ये अपने कंबलों में दुबक गये.

पेड़ों को तो ख़ैर तुम
आज भी नर्तन
की मुद्रा में देखते होगे
संसदों और सट्टाबाज़ारों में दो को चार बनाते.

(ट्रेन, पटना से कानपुर, 28 फ़रवरी 1991)

प्राथमिकताएं बदलो

ख़ुशियों और चिडियों की
बड़ी गड्डमड्ड होती छवियां हैं
मेरे मन में

वो जो कुछ मर रहा है
मेरे भीतर
ऑर्केस्ट्रा में सिंथेसाइज़र बजाते छोकरे की
जड़ छायाएं हैं
यहां चिडियों के परों को झुलसा देने वाली

घर रहने आई हैं चिडियां

उन्हें संगीत और हथेलियों के शोर से
बचाना है.

(पटना, दिसंबर 1991)

सड़क बनाने वाले

रोलर-आग
बजरी और कोलतार...

लो आ गये सड़क बनाने वाले !
बड़े बड़े वाहनों और आने जाने वालों की गालियों
से बचते हुए
लगे रहते हैं दिन रात

अक्सर सुबह जब हम जगते हैं
तो पाते हैं, सड़कें- चिकनी- काली-मज़बूत
बिछी हैं.
हल्की टूट-फूट पर भी लग जाते हैं
सड़क बनानेवाले

सड़क बनानेवाले
अपनी ज़िंदगी की टूट-फूट से बेखबर
हमारी सड़कें बनाते रहते हैं.

(गुरमा, 18 अप्रेल, 1988)

नींव के प्रति

तुम उनके बारे में
जानते हो?
जो तुम्हारे बारे में जानते हैं

सुनसान काली रातों में
जाग जाग कर
रास्ते तलाश करते हैं

सुनहरी चटख़ धूप में
सूरज को सिर पर लिये
बांट-बांट लेना चाहते हैं

ठिठुरती सुबह
जो निकल पड़ते हैं
बंद किताबों के वर्क़ पलटने

जिनकी आंखों में से झांकती हैं
कई कई आंखें एक साथ
जिनके हाथों में कई-कई हाथों की
ताक़त समा गयी है
जिनके दिलों में कई गुनाह उत्साह है

जिनके लिये तुम्हे विचारवान बनाना
तुम्हे दिन को दिन कहने की हिम्मत बख्शना
रेत के महल बनाने जैसा नहीं लगता

तुम उनके बारे में जानते हो
जो तुम्हारे बारे में
जानते हैं?

जैसे कपड़ों को दर्ज़ी, बालों को नाई
मिट्टी को कुम्हार
या
नदी को किनारे
और भूखे को रोटी की
ज़रूरत है
वैसे ही फ़िलहाल

तुम्हें इनकी ज़रूरत है

तुम्हारे पास तुम्हारे लिये वक़्त नहीं है
तो क्या?
तुम्हें काली आंधियों से
बचाने के लिये
ये व्यूह रचना कर रहे हैं

तुम उनके बारो में जानो
जो तुम्हारे बारे में
जान रहे हैं.

(गुरमा, 11 अप्रेल 1988)

शीर्षकहीन

मैंने सोचा था कि
एक दिन अच्छा बांसुरीवादक हो जाऊंगा
मैंने आईने में देखा
मेरी टोपी टेढी थी
और जूते का तलवा फट गया था/

'बांसुरी बजाने और टोपी के टेढे होने
बांसुरी बजाने और जूते का तलवा फटा होने में
कोई रिश्ता नहीं होता'
मैंने सोचा

फिर मैं ने चाहा कि सुरों के सहारे
वहां वहां पहुंच जाऊं जहां पहुंचने के सपने
मैं लड़कपन में देखा करता था

मैं ने किताबों के वर्क़ पलट डाले
और उजास घरों की तलाश में जुट गया

'बुद्धिनाथ भाई ! ज़रा नीचे आइये'

साथ थे सिगरेटों के पैकेट्स
कच्ची नींदों में जवान लड़कियों के सपने
और सांठ -गांठ से जीवन चलाने के जोड़ गुणा
रात जैसे बहसों में बीते घंटों की तरह काली
'साले तू भी कैसे कैसे सवाल उछाल देता है? देखता नहीं कि
आखिरी अंडरवियर भी अब साथ छोड़ चला है

बीवी थी/ बेचारी क्या करती?
उसकी भी ज़िंदगी तो कैरम की गोट जैसी रही
उसे कभी नहीं दे पाया पांच शेर शक्कर कि ले
हम सब की ज़िंदगी मीठी बना डाल

शहर में एक गाड़ी थी
छोटे छोटे झुनझुने बंधे थे उसमें
हुक्म था कि गाड़ी चले तो झुनझुने बजने चाहिये
धीरे धीरे नहीं / ज़ोर से कि बच्चे की रोती आवाज़ न सुनाई दे पाये
बस टुन-टुन-टुन-टुन

एक एक कर सारे दोस्त घंटियां बनने चले गये

चारों तरफ़ धुआं था और कमरा बंद था
नौकर कहता था- शाप आजकल आप शिग्रेट बहोत पीने लगे हो

नींद या तो आती नहीं थी या आती तो किसी मैदान के
बीचो बीच मैं अपने को बैठा हुआ पाता

दूर-दूर कुछ बड़े स्तनों वाली - झूलते नितंबों वाली
तथाकथित सुंदर लड़कियां पत्थर के छोटे छोटे टुकड़े मारकर
मेरी नींद का कच्चा घड़ा फोड़ देतीं

मुझे लगा कि बच्चे पैदा करने की एक सीमा होती है
जब मुझे लगा कि झूठ बोलने की भी एक सीमा होनी चाहिये

वरना यह डर लगातार मौजूद है कि आपके जननांगों में
फफूंदी लग जायेगी और
चेहरों पर अविश्वास की घास उग आयेगी

मैंने नौकर से कहा है कि वह हर घंटे मेरे कमरे से
सिगरेट के टोटे निकाल फेंका करे
वरना ये धुआं ही क्या कम है
जो ये टोटे भी हलक़ में फंसने को मेरा खौफ़ कई गुना करते हैं
(अधूरी, इलाहाबाद, 1 मई,1988)

नोट्स

कि बहुत दिन हो गये सांप को देखे
और अचानक गिर पड़े भी बहुत दिन हुए

07 दिसम्बर 1990

Monday, January 13, 2014

तैयारी

यह हमारे लिये चुनौती है
इतिहास के पन्नों में दर्ज किसी भी
चुनौती को मुंह चिढाती

ये यूनीपोलर गुंडे का बढा हुआ लालच है जिसे
पाने की चाह में उछल रहे हैं
हमारे भाग्य विधाता
यह हमारे विकास के लिये ज़रूरी थैली है
अखबार हमें बताते हैं

गलियों में धूल उड़ाते इम्पोर्टेड सामानों से
लदे ट्रक अब आम हो रहे हैं

और कल तक नैतिकता की दुहाई देनेवाले
बड़ी ललचाई नज़रों से इस
लालची बूढे को देख रहे हैं

हम जो तेज़ रफ़्तार गाडियों की चपेट में आने से बच पाए
एक दूसरे का हाथ थामें सड़कें पार कर रहे हैं
सहमे चूहों जैसे हमारे नन्हें चेहरे कोई भी देखना नहीं चाहता
लेकिन युद्ध की इस चुनौती को हमने अपने तकियों के नीचे
सुना है

इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं हैं ऐसी चुनौतियां
और हमें किसी योद्धा से मदद भी नहीं चाहिये
हमारे पहाड़ हैं और सूर्य हमारे नथुनों में करोड़ों वर्षों की
सुगन्धियां भर रहा है
पर्वतों को हमने पुतलियों पर सजाया है
और समुद्र हमारे छोटे सीनों पर गरज कर हमें
वाष्पित करता है
हमने समुद्र को मल लिया है अपने चेहरे पर
और चले आये हैं
इस चुनौती से लोहा लेने.

II इरफ़ान, मद्रास, सितम्बर, 1992 II

नया साल

नये साल, न आना हमारे घर हम एक प्रेतलोक की प्रतिध्वनियां हैं छोड़ दिया है हमें लोगों ने हमें रात और अतीत निकल चुके हैं हमारे हाथों से नियति ने भुला दिया है हमें कोई प्रतीक्षा नहीं, न कोई उम्मीद हमारे पास न कोई स्मृति है, न कोई सपना. हमारे शांत चेहरे खो चुके हैं अपना रंग अपनी दमक. नाज़िक अल-मलैका अरबी कवयित्री, बग़दाद (शेष कुछ और अंश) ... नये साल चलते रहो कोई गुंजाइश नहीं है हमारे जागने की सरकंडे की बनी हैं हमारी नसें क्रोध ने छोड़ दिया है बहना हमारे खून में.